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हवा का मासूम झोंका

  • Writer: Manoj  Mittal
    Manoj Mittal
  • Jan 26
  • 1 min read

Updated: Feb 8



शाम पेड़ की फुनगियों पर उतर आई थी,

अनमना सूरज भी थक डूबने को था |

परिंदे घोंसलों की ओर लौट चले थे,

यादों के साये भी लंबे होने लगे थे |

 

हवा मे अजब-सी रवानगी की खामोशी थी,

लगा-किसी ने मन को दस्तक दी |

हवा का मासूम झोंका था वो,

जो छु के मन की धड़कन गुजर गया |

शायद ठहरना चाहता था वो,

ठिठका भी था और फुसफुसाया भी,

यकीनन कुछ कहना चाहता था |

 

वो ठहरता जरा तो बेहतर था,

यादों के बवंडर खोल गया,

सहेजे अहसासों को बिखरा गया |

 

चाहा था रोक लूँ

कुछ पल को ही सही |

पूछूँ  - परदेश का हाल और,

सुनूँ - उन आसमानों के

सतरंगी सपनों की दास्ताने |

 

शामें वहाँ भी सुनसान ही होतीं हैं क्या ?

 

कहूँ - पहुँचा दे मेरे कुछ ख्बाब,

उन आँखों तक जहाँ से वो आते हैं |

और कुछ अहसासो को,

उन मंजिलों तक जहाँ के वो तलबगार हैं |

 

न जाने क्यों में झिझक गया,

रोक ना सका |

हवा का वो झोंका भी मासूम था चला गया ,

और फिर अंधेरा भी तो गहराने लगा था |

 

 

फुनगियाँ- पेड़ की सबसे ऊपर की कोमल शाखाएं/पत्तियां

रवानगी- प्रस्थान/जाने , तलबगार- इच्छुक


 

[ मनोज मित्तल, नोएडा, 26 जनवरी 2025]



4 bình luận


Deepak Bansal
Deepak Bansal
27 thg 1

Nostalgic.

Thích
Manoj  Mittal
Manoj Mittal
27 thg 1
Phản hồi lại

thanks

Thích

Apurv Shrivastava
Apurv Shrivastava
27 thg 1

Sir, your writing takes us to the different world, I can say a real world which we all have experienced but not able to write about, in a way you are writing these lines. Hats off to you sir. 

Thích
Manoj  Mittal
Manoj Mittal
27 thg 1
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Thanks, Apurv

Thích
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