सूरज भी निकले तो सही
- Manoj Mittal
- Jan 16
- 1 min read
Updated: Feb 3
पूस की कांपती सर्द सुबह है...
कोहरे में खोए हैं पेड़ भी
धुँधलका भी अभी गया नहीं
ठिठुरी सी है खंबे की रोशनी
कुत्ता भी सोया है गाड़ी के नीचे
पूस की कांपती सर्द सुबह है-
कठोर और एकाकी
खिड़की के शीशे पर ठिठकी हैं
ओस की शबनमी बूंदे
मन मे अटकी तन्हाईयों की तरह |
गर्म चाय के कप की मासूम भाप भी
पिघलाना चाहती है कोहरे को |
उँगलिया लिखतीं हैं गीले शीशे पर तुम्हें
और आंखे भी ढूढ़तीं है
तुम्ही को इस धुँधलके में |
रात गुजर गई ...
पर फिर भी
तुम अभी कहाँ ही आ पाओगी
सूरज भी निकले तो सही…
पूस की कांपती सर्द सुबह है…
[मनोज मित्तल,नोएडा, 16 जनवरी 2025]

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