यादों की यादें
- Manoj Mittal
- Sep 9, 2024
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Updated: Dec 6, 2024

कल गुजरा जब यादों की गुज़रगाहों से
तो बिसरी यादों की याद बहुत आई |
दिखा तन्हा बेबस और जर्जर सा वो मकां
जो था कभी बेहनूर और
मेरी खुशियों का पनाहगार |
खड़ा था वो सूखा बेरंग दरख्त
टकते थे शाखों में जिसकी
मेरे सपनों के लम्हे |
सब्ज़ था जो कभी
न वो बाग था ना वो अमराई ;
सूखे गिरे पत्तों में छुपाये उन आमों की
बेहद याद आई |
आसमाँ जो था दिन को आसमानी
और रात ढले सलमे सितारों जड़ी चादर सा ;
अपने हिस्से के उस आसमानी टुकड़े की
बेहद याद आई |
आँगन में उतरती शाम की
बेजान धूप तो थी पर कहाँ थी
खिलखिलाती वो हँसी ;
पसरा था - अनकहा सा सन्नाटा |
सूनी थीं - चहकती वो गलियाँ
बाट जोहती हों किसी का जैसे |
दूर बहुत चले आयें हम तलाश में उसकी
जो बिखरी थी आसपास
यादों की तरह |
[गुज़रगाहों – रास्ते, बेहनूर- बेहद सुन्दर , सब्ज़- हरा भरा/नया ,अमराई- आम के बागों की छांव ]
[ मनोज मित्तल, नोएडा, 9 सितम्बर 2024]
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