नियति
- Manoj Mittal
- Sep 28, 2024
- 1 min read
Updated: Dec 6, 2024

नियति
प्रचंड उफनती वेगमयी नदी
लांघने को आतुर थी
वक्त का बांध |
कड़कती थी बिजली
गरजते थे बादल
बरसता था आसमान
गहराया था अंधियारा |
टूटे नदी के पाट
दरके पहाड़
टूटा बरसों पुराना वो पुल
जोड़ता था जो सदियों को |
थरथरा रहे थे पेड़
घोंसले में सहमी थी गौरेया
फसल बुझा रही थी नदी की भूख
संभालता था कोई छप्पर
और कोई खलिहान अपना |
लौटते नहीं परिंदे अब नदी पार से
दुर्गम जो हो गईं दूरियाँ
नहीं आती आवाज़ अज़ान की
और न जाती हे घंटे की आवाज़ |
हे वेगमयी नदी !
जाओगी कहाँ तोड़ बांध
चंचल हो
प्रवाहमान हो
बहो, निरंतर बहना हे प्रकृति तुम्हारी
सहज रहो
आतुरता क्यों ?
समर्पण कर समाना है
समुंदर मे ही
यही है नियति तुम्हारी |
[मनोज मित्तल , नोएडा, 28 सितंबर 2024]

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