बसंत
- Manoj Mittal
- Feb 15
- 1 min read
Updated: Feb 19
पतझड़ है
झड़ते हैं पत्ते पेड़ों से
ढुलकें आँसू जैसे गालों पे |
सूखे हैं पत्ते और बदरंग भी
ठेलती है हवा यहाँ वहाँ
समेट ले जाता उन्हे कोई
बिखरे सपनों की तरह |
रिसते रहते हैं लम्हे
वक़्त की गठरी से
ठूंठ सा दिखता है वो
ज़िंदा था जो कल
निचुड़ गई हो ज़िंदगी जैसे |
बासंती हवा की सिरहन है..
ख्वाहिशों की कोंपलें फूटी हैं..
गालों पे नमकीन निशां हैं..
आँखों में ख्वाबों की चमक जागी है..
टहनियों में भी फुटाव है..
बसंत आने को है
और जमीं भी नम है |
[मनोज मित्तल , नोएडा, 15 फ़रवरी 2025]

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