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भीड़

  • Writer: Manoj  Mittal
    Manoj Mittal
  • Sep 24, 2024
  • 1 min read

Updated: Dec 6, 2024



ज़माने में भीड़ तो बहुत थी

पर फिर भी मन था एकाकी |

मैं चला था जानिबे सफर में

बांध यादों का सैलाब |

कोशिश में ढूढने की खुद को

रिला दिया भीड़ ने तिनको की तरह |

झाँका किए लोग बहुत

मन को हमारे

गोया मर्कज-ए-नुमाइश हो जैसे |

परेशां था जब मन

सब मुनाफिक ही मिले |

दर्दे दवा तो क्या होती

खैर- मकदम में ही निपटे लोग |

नाकाफी था हाथों का जोर

गुमते गए भीड़ में लोग |

नुक्कड़ पर मद्धम थी

खंबे की रोशनी

और धीमी थी नब्ज़ भी मेरी |

ढूढ़ता रहा पर मन भीड़ में

होकर भी एकाकी |

 

 

जानिब- एक दिशा में , मर्कज-ए- नुमाइश – देखने की खास चीज़ ,

मुनाफिक- स्वार्थी , खैर-मकदम – हाल चाल पूछना

 

 

[ मनोज मित्तल, नोएडा, 24 सितम्बर 2024]



 

1 Comment


HR Mangalmay
HR Mangalmay
Sep 25, 2024

Just wow sir 👏👏

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