देर
- Manoj Mittal
- Mar 1
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वक़्त की गर्द
जमती गई मन के आईने पर
तहें जमती रहीं
और गहराती गई ...
मौके थे गर्द पोंछने के
मगर नज़रअंदाज किए हम ...
कुछ जमाने की चौंध ने भरमाया
और कुछ गर्दिश-ए-दौर की
बेख्याली ने ...
न जाने कब और कैसे
संवेदनाओं का मन से रिश्ता
टूटने सा लगा...
अहसासों के अहसास
दर्दों के दर्द
और जज़्बातों के जज़्बात
खोने लगे वक्त के बियाबानों में...
जज़्बातों के मर जाने से
जिस्म रह जाते हैं
पर इंसान अक्सर
मर जाया करते हैं ...
ज़िंदा रहने की कवायद में
मगर जानते हुए भी कि
नामुमकिन है वक्त को थामना
या उसकी उम्र को मापना...
गर्द की गहरी ढ़ीट तहों को झाड़ने
और बेवजह
वक्त को मापने की कोशिश में
दरक गया आईना ...
शायद देर ज्यादा हो चुकी थी...
गर्दिश-ए-दौर - समय का उतार-चढ़ाव / हालातों का बदलना
बेख्याली- ध्यान ना रहना
बियाबान- वीरान
दरकना - टूटना
[मनोज मित्तल , नोएडा , 2 मार्च 2025]

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